जब उसने हल चलाया ,
था अपना पसीना बहाया
भूख से बिलकते बच्चो के लिए
तब मुट्ठी भर अन्न उगाया
चीख कर कह उठी धरती
जब उसने आँसू बहाया
हे कुदरत तूने किसान का
कैसा नसीब बनाया!!
मिट्टी का बनाया घर
उस पर घास फूस की छत को लगाया
मिली नही चारपाई कभी
धरती को उसने बिछोना बनाया
कभी वो रोया मुफलिसी में
कभी टपकती छत ने रुलाया
चीख कर कही उठी धरती
जब उसने आँसू बहाया
हे कुदरत तूने किसान का
कैसा नसीब बनाया!!
देख कर तन के कपड़े
जीवन संगनी का मन भर आया
ना मिली जब सरकारी सहायता
फंदा फाँसी का बनाया
कभी वो रोया उजड़ी फसल पर
कभी बदनसीबी ने रुलाया
चीख कर कह उठी धरती
जब उसने आँसू बहाया
हे कुदरत तूने किसान का
कैसा नसीब बनाया!!