धर्म का प्राणतत्व : विनय (अंतिम भाग # ३) [ The Life of Religion : Modesty (Final Part # 3)]
इस प्रकार दुसरे दिन से उन गवैयों ने गुरु अनंगदेव के दरबार में भजन गाने के लिए आना छोड़ दिया । जब वे नहीं आए तो क्षमाशील गुरु ने उन्हें बुलवाया । किन्तु जिनके मन में अविनय ने जड़ें जमा ली थीं, ऐसे गवैये क्यों समझने लगे ? उन्होंने कहलवाया – “हम नहीं आएगें । दरबार की शोभा हमारे ही कारण है । हम दरबार में भजन न गाएं तो दरबार ही न भरे । और तो और साक्षात् गुरु नानक साहब के दरबार की शोभा भी उस समय के गायकों के ही कारण थी ।”
कृतघ्न तथा अविनयी गवैयों के व्यवहार को गुरु अनंगदेव ने क्षमावान होने के नाते सहन कर लिया था, किन्तु अब जब उनका अविनय इतना बढ़ गया कि स्वयं गुरु नानक देव साहब के दरबार का भी वे अपमान करने लगे तब उन्होंने शाप दिया – “ये कृतघ्न तथा अविनयी गवैये भूखे मरेंगे । इनके बच्चे भी अनाज के दाने-दाने के लिए तरसेंगे ।”
इसके पश्चात् गुरु अनंगदेव ने अपने शिष्यों को ही भजन गाने के लिए कहा । सत्कार्य के लिए कभी लोगों की कमी नहीं पड़ती । कहीं से ढोलक आई, कहीं से मंजीरे, कही से खड़ताल और सुमधुर भजन की तान आकाश को गुंजायमान करने लगी । दरबार में संगीतामृत तथा भजनानन्द की अमृत वर्षा होने लगी ।
उधर बलवन्त और सत्ता दोनों अविनयी गवैये अपने साज-सामान लेकर गाने बैठते और बड़ा प्रयत्न करते कि लोग उनका संगीत सुनें किन्तु लोग तो क्या, कोई प्राणी भी उनका संगीत सुनने नहीं जाता ।
इस प्रकार अपने अविनय का फल उन दोनों गवैयों को हाथों-हाथ मिलने लगा । वे भूखे मरने लगे । उनके बाल-बच्चे दाने-दाने के लिए तरसने लगे ।
आँखों के आगे से भ्रम का पर्दा हटा । अविनय का स्थान पुन: विनय लेने लगा । उन्होंने गुरु के सामने अपनी प्राथेना प्रेषित की – “हमें केवल भोजन तथा वस्त्र ही प्रदान कीजिए, हम दरबार में गाने के लिए तैयार हैं ।”
किन्तु अनंगदेव उन अविनयी गवैयों को पूरी शिक्षा देना चाहते थे, ताकि भविष्य में फिर वे कोई उद्दंडता न करें, अविनय न करें । अत: उन्होंने अपने शिष्यों से कहा – “ख़बरदार ! गुरु नानकदेव की गद्दी का अपमान करने वाले इन अविनयी गवैयों की ओर से क्षमा मांगने मेरे पास कोई न आए । यदि कोई भूल कर भी आया तो उसकी दाढ़ी-मूंछ मुंडाकर, मुंह काला करके, उल्टे गधे पर बिठाकर गावं में घुमाया जाएगा ।”
इतना भयानक दण्ड सहन करने के लिए कौन तैयार हो ? बेचारे गवैये हाथ पर हाथ धर कर अपनी भूल का पश्चात्ताप करने लगे ।
अन्त में उन गवैयों ने लाहोर के एक सिख भाई, जिनका नाम लद्धा था, उन्हें खोज निकाला और उनसे प्रार्थना की – “भाई, आप दयावान है । गुरु अनंगदेव आपका बड़ा सम्मान करते हैं । हम पापी हैं । हमसे भूल हो गई । हम अपने अविनय के लिए घोर पश्चात्ताप करते हैं । भविष्य में गुरु के प्रति किसी प्रकार का अविनय भाव भूलकर भी अपने ह्रदय में नहीं लाएंगे । बस, एक बार हमें क्षमा दिला दीजिए ।”
भाई लद्धा यह जानते थे कि गुरु का वचन स्थिर होता है । किन्तु उन्हें उन भूखे मरते गवैयों पर दया आई । उन्होंने सोचा कि एक सत्कार्य करने का यह अवसर आया है, इसे अवश्य करना चाहिए । चाहे कितना भी कष्ट हो ।
यह विचार करके उन्होंने स्वयं ही अपनी दाढ़ी-मूंछे कटवा ली । मुख पर कालिख पोत लिया और गधे पर उलटी तरफ मुंह करके चल दिए । गुरु के ग्राम की उन्होए प्रदक्षिणा की और फिर गुरु के समक्ष पहुंच गए ।
गुरु अनंगदेव ने अपने प्रिय शिष्य लद्धा के इस प्रकार आया देख सारा माजरा समझ लिया और बोले – “तुम आए हो, तो मैं उन गवैयों को क्षमा करता हूँ । किन्तु स्मरण रखो विनय जीवन का श्रंगार है । कितनी भी बड़ी योग्यता हो, कितना भी ज्ञान हो, यदि ह्रदय में अविनय जागा तो सब कुछ नष्ट हो जाता है । विनय के अभाव में मनुष्य का जीवन व्यर्थ है ।”
बलवंत तथा सत्ता नामक उन गवैयों को गुरु अनंगदेव ने फिर से अपने दरबार में आश्रय देकर कहा – “भाई, मैं तुम्हारा अहित नहीं चाहता । मैं तो तुम्हारा हित ही चाहता था । इसलिए मैं तुम्हारे अहंकार को नष्ट करना चाहता था । अब तुम्हारे ज्ञान-नेत्र खुल गए हैं तो जिस मुख से तुमने गुरु के प्रति अविनय के शब्द कहे थे, उसी मुख से उनके गुणगान करो और सुखी रहो ।”
अत:
विद्या विनय प्रदान करती है । विनय से पात्रता, पात्रता से धन, धन से धर्म तथा धर्म से सुख प्राप्त होता है ।
इससे जुडी पिछली पोस्ट का जुड़ाव है (the link of previous post)
- https://steemit.com/life/@mehta/or-the-life-of-religion-modesty-part-1
- https://steemit.com/life/@mehta/or-the-life-of-religion-modesty-part-2
The English translation of this post by Google translation tool:
Thus, from those days, those singers stopped coming to sing the hymns in Guru Anangdev's court. When they did not come, the pardoned guru summoned them. But in whose minds the indecency had taken roots, why did such singers begin to understand? They said - "We will not come. The beauty of the court is our only reason. If we do not sing hymns in the court then the court is not filled. And the beauty of the court of Guru Nanak Sahib was also the reason for the singers of that time. "
Guru Anangdev had tolerated the behavior of ungrateful and indecisione singers, but now when his indecision grew so much that he himself started insulting the court of Guru Nanak Dev Sahib, then he cursed - "This is ungrateful and Indie songs will starve hungry. Their children will also crave grain grains. "
After this, Guru Anangdev asked his disciples to sing hymns only. There is no shortage of people for good deeds. Dholak came from somewhere, from somewhere Manjeer, Strikers from the Stones and the tone of humorous hymn began to resonate the sky. In the court, the nectar of Sangeetamrit and Bhajananand started to rain.
On the other hand, both the strong and powerful, uninterrupted singers sang their music and tried hard to make people listen to their music, but people do not even listen to their music.
In this way, the result of their indecision started giving hands to those two singers. They began to die starving. Their childs crave for grains.
Remove the veil of delusion from the eyes ahead The place of indecency began to be reconciled. He sent his prayer to the Guru in front of him - "Provide food and clothing only to us, we are ready to sing in the court."
But Anangdev wanted to give complete education to those indestructible singers so that they do not make any ambiguity in the future, do not indulge in indecision. So he told his disciples - "Vide! Nobody came to ask me to apologize on behalf of these indecisional singers who insulted Guru Nankadeva's throne. If any mistakes came, then shaving his bearded mustache, turning his face and turning it on the reverse asshole will be rotated in the village. "
Who is ready to bear such a terrible punishment? Poor girlfriends, holding hands on their hands, began repented of their mistake.
In the end, those singers searched for a Sikh brother, whose name was warring in Lahore, and prayed to them - "Brother, you are compassionate. Guru Anangdev honors you big. We are sinners. We have forgotten. We are deeply repentant for our indecision. In the future, any kind of indecency towards the guru will not be brought to his heart by forgetting too. Just forgive us once. "
Brother fighters knew that the word of the guru is stable. But he had compassion for those hungry singers. They thought that this opportunity to do a good work has come, it must be done. No matter how hard you are.
By considering this, he himself cut his beard and mustache. Take a shirt on the face and walk on the opposite side of the ass. He made the Pradakshinana of the Guru's village and then reached Guru.
Guru Anangdev came to this type of fight of his beloved disciple and he understood the whole thing and said, "If you have come, then I forgive those singers. But remember, modesty is the gift of life. There is no great qualification, no matter how much knowledge, if the uneven space in the heart then everything is destroyed. Man's life is useless in the absence of modesty. "
Guru Anangdev again gave shelter to those singers called Balwant and Shakti, and said, "Brother, I do not want to harm you. I just wanted your best. So I wanted to destroy your ego. Now that your eyesight has opened, then the mouth from which you used to say words of indecency against the Guru, praise them with the same mouth and be happy. "
Therefore
Vidya offers modesty. Regardless of eligibility, wealth from eligibility, wealth, religion and religion get pleasure.
हमे किसी भी काम को अपना कर्तब्य समझ कर करना चाहिए न कि उपकार समझ कर
जब हम उपकार समझकर काम करते है तो हमारी अपेक्षा दूसरों से बढ़ जाती.और जब अपेक्षा पूरी नहीं होती तो हमारे मन में उस इंसान के प्रति बिनम्रता खत्म हो जाती है.
@woodparker sahi hai......!
बहुत सही कहा। पुराने समय में शिक्षक और छात्र दोनों बहुत अच्छे थे लेकिन अब समय बदल गया है सबकुछ बदल गया है। न तो शिक्षक और न ही छात्र
विनय हमारे जीवन के लिए बहुत जरुरी है क्योंकि अविनय से हमारे काम भी बिगड़ सकते हैं और विनय से हमारे जीवन में काम भी बन सकते है।
Similarly, the religion of the religion is modest and salvation is its ultimate culmination. Humane man acquires the knowledge and wisdom of the entire scriptures. A polite person succeeds in discharging his responsibilities towards society and family.
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Mehta sir , kya baat h
Sir plz upvote me ,
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Jai hind
हमे अपने ज्ञान और कला पर गमंड नहीं करना चाहिए और नहीं कभी किसी का अपमान करना चाहिए हमे अपने ज्ञान और और कला का उपयोग हमेसा दुसरो को भले के लिए करना चाहिए और जीवन में कभी की अभिमान नहीं होना चाहिए अभिमान अंत की सुरुआत हे
Hi @mehta ji
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यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भव- ति भारत ।
अभ्युत्थान- मधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्- ॥४-७॥
परित्राणाय- साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्- ।
धर्मसंस्था- पनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥४-८॥
जब जब भी धर्म का विनाश हुआ, अधर्म का उत्थान हुआ,
तब तब मैंने खुद का सृजन किया, साधुओं के उद्धार और बुरे कर्म करने वालो के संहार के लिए,
धर्म की स्थापना के प्रयोजन से, मै हर युग में, युग युग में जनम लेता रहूँगा।
Hello @mehta JI
Nice post regarding religion.. I have not finished reading till now...
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मित्र, आपकी पोस्ट शानदार है जिसमे धर्म का प्राणतत्व के बारे में बताये गया
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