जिनवाणी : जीवन और आचरण -- भाग # ३

in #life6 years ago (edited)

कल की पोस्ट “जीवन और आचरण” भाग #२ से आगे शुरू करते है ----

अपना क्रूर तथा नीचतापूर्ण निर्णय ले लेने पर रानी ने एक दिन राजा से कहा –
“बहुत दिन हो गए, अपने कही घूमने नहीं गए, चलिए आज नदी किनारे भ्रमण हेतु चले ।”
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राजा का मन सरल था । वह रानी की कुटिल भावना को समझ नहीं सका । उसने झट से स्वीकृति दे दी और वे जंगल की ओर चल पड़े ।

नदी का कगार ऊँचा था । वहां एक शिलाखण्ड पर वे दोनों बैठ गए । राजा नदी की जल-तरंगो को मग्न होकर निहारने लगा ।

अवसर देख रानी ने राजा को उस ऊँचे कगार से उफनकर बहती हुई नदी के जल में धकेल दिया ।

रानी मन ही मन प्रसन्न होती अपने घर आ गई ।

किन्तु राजा मरा नहीं । कोई लकड़ी का पटिया उसके हाथ आ गया और वह उसके सहारे स्वयं को डूबने से बचाता हुआ तिरता-तिरता दूर किसी नगर के घाट पर जा लगा । बहुत थक गया था वह । वहां नदी के जल में से निकलकर वह निकटस्थ किसी उद्धायन में सो गया ।

संयोग की बात है कि उस नगरी का राजा निस्संतान ही परमधाम को प्राप्त हुआ था । प्रश्न था कि अब राजा किसे बनाया जाए ? निर्णय हुआ कि राज-हस्तिनी की सुंड में पुष्प माला दी जाए । वह हस्तिनी जिस पुरुष के गले में माला पहना दे, उसे ही राजा बना दें ।

हस्तिनी मस्त चाल से चलते-चलते उसी उद्धायन की ओर आ निकली जिसमे थका हारा राजा जितशत्रु सो रहा था । हस्तिनी राजा के समीप आई और उसने वह पुष्पमाला उसके गले में पहना दी । राजा उठ बैठा । उस नगर के लोगों ने तथा समस्त मंत्रिमंडल ने उसका जयकार किया तथा उसे अपनी नगरी के राजपद पर प्रतिष्ठित कर दिया ।

समय सदैव करवट लेता रहा है । समय ने करवट ली और द्वार-द्वार भटकता फिरता किसी समय का राजा जितशत्रु, पुन: राजा बन गया । समय की इस करवट ने राजा जितशत्रु को भी बदल डाला था । अपनी रानी के पापपूर्ण तथा कपट भरे दुर्व्यवहार ने उसकी आँखें खोल दी थीं । वह अब जान चूका था कि अपने कर्तव्य-पथ से विचलित हो जाने के कैसे-कैसे दुष्परिणाम हो सकते है । अत: वह अब निष्ठापूर्वक, न्याय तथा संयमपूर्वक राज-काज देखने लगा तथा अपना जीवन-व्यवहार भी उसने दुराचरण से सदाचार की ओर मोड़ दिया । विषय-भोगों के विष का कड़वा स्वाद वह चख चूका था । जान चूका था कि ये विषय-भोग जीवन को पतन की ओर ले जाने वाले हैं । अस्तु, अब वह एक सदाचारी मानव तथा न्यायपरायण राजा बन गया था ।

आपको यह जिज्ञासा होगी कि उस रानी सुकुमालिका का क्या हुआ ? उसके पाप का फल उसे कैसे मिला ? पाप कर्म का कुफल तो मिला होगा यह सुनिश्चित है । तो आइये जानते है -

रानी और वह लंगड़ा आदमी कुछ समय तो भोग-विलास में डूबे रहे । किन्तु फिर धीरे-धीरे सारी धन-संपत्ति समाप्त हो गई । धन के समाप्त हो जाने पर उस रानी तथा उसके लंगड़े प्रेमी को पुन: रस्ते का भिखारी बन जाना पड़ा । अब रानी अपने प्रेमी को अपने कन्धों पर उठाए द्वार-द्वार भटकती फिरती थी । वे गीत गाते और भिक्षा मांगते थे । होते-होते एक नगर और एक-एक ग्राम से दुसरे नगर और दुसरे ग्राम चलते-चलते वे एक दिन उसी नगर में आ पहुँचे जहाँ राजा जितशत्रु राज्य कर रहा था । रानी गली-गली गाती फिर रही थी –

“एक पंगु भरतार.... ”

गीत के भाव ये थे कि मेरा भरतार पंगु है, मैं सीता सावित्री की भांति पवित्रतापुर्वक इसकी सेवा कर रही हूँ, आदि ।

रानी जब गाती-गाती राजमहल दे समीप से गुजर रही थी तब उसका स्वर राजा के कानों से भी जा टकराया । वह चौंक उठा । गवाक्ष में आकर उसने देखा और सुना – “एक पंगु भरतार.... ।”

राजा ने रानी को पहचान लिया । उसके चरित्र को तो वह पहले ही जान चूका था । घृणा और क्रोध उसके ह्रदय में भर आए । उसने सेवकों को भेजकर रानी को सभाभवन में बुलाया और कहा –

“बाहोश्च रुधिरं पीत्वा, जंघा मांसं च भक्षता ।

सो भर्ता गंगायां वाहया, साधु-साधु पतिव्रता ।।”

अपने पति की बाँहों का रुधिर पीने वाली, उसकी जंघा का मांस खाने वाली और उसे नदी में डुबो देने – बहा देने वाली तू विचित्र सती है ?

पोल खुल गई अथवा कहें कि सच्चाई समक्ष आ गई । झूठ अधिक समय टिक ही नहीं सकता । पाप का घड़ा एक-न-एक दिन फूटता ही है । सो फुट गया ।

रानी की तक़दीर को भी उसके दुष्कर्मों के कारण फूटना था । वह भी फुट गई ।

राजा ने उस दुश्चरित्र का सिर घुटवाकर, मुख पर कालिख पुतवाकर उसे अपने राज्य से बाहर निकलवा दिया ।
यही दुराचरण का परिणाम है । दुराचारिणी रानी को अपना राज, पति, राज्य, सम्मान और सहारा – सभी कुछ गवां देना पड़ा । एक शब्द में कहा जाए तो वह अपना सर्वस्व ही गंवा बैठी ।

अत: विचार कीजिए और निश्चय कीजिए कि अपने आचरण को सदैव शुद्ध रखेंगे । सदाचार के मार्ग का त्याग कभी न करेंगे । हमने आरम्भ में कहा था कि अपने जीवन का निर्माण कर लेना अथवा विनाश को आमंत्रण देना स्वयं हमारे हाथ में होता है । इस अवसर को व्यर्थ न जाने दीजिए । सदाचारी बनकर आत्मोन्नति की साधना कीजिए ।

इसी से जुडी पिछली पोस्टो का जुडाव है :-
https://steemit.com/@mehta/4adbj4
https://steemit.com/@mehta/5aiuqr

अब इसका चौथा और अंतिम अध्धाय अगली पोस्ट में जानेगें ।

जीवन और आचरण Steeming

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Mehta sir ,you have really beautiful thoughts,this story shows that how beautiful thoughts you have,u are really great man thank you again sir👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦👦

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Hi i am @akashsagar

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Great post!
Thanks for tasting the eden!

बहुत ही अच्छा है 👌 story

A great story in Hindi attracts me thanks for the great story and supporting new comers like us @mehta

@mehta " धन के समाप्त हो जाने पर उस रानी तथा उसके लंगड़े प्रेमी को पुन: रस्ते का भिखारी बन जाना पड़ा । अब रानी अपने प्रेमी को अपने कन्धों पर उठाए द्वार-द्वार भटकती फिरती थी । " जो जैसा करता है उसके साथ वैसा ही होता है!

Bahut achha @mehta ji, aapne ek sundar topic choose Kiya h. Jo bhartiya parmpara aur itihaas se juda hua hai..
Bahut khub aap apne post se hum Bhartiyo k liya Bharat k gaurav ki baat share kar rhe hai.

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very nice story keep it up

Bure karm ka fal hamesha bura hi hota hai. Sad achran ke siva manushya ka sahara koi nahi hai.

Nice story ..

Very good Thoughts..
as an Indian i support your articles on jivan & acharan...

‌‌‌जीवन के अच्छे विचार है।

जो भी सत्ता, संपत्ति, सत्कार जीवन में मिलता है, उसे देने वाला एक न एक दिन जरूर वापस ले लेता है। इससे दुखी नहीं होना चाहिए। ऐसा इसलिए, क्योंकि यही अंतिम सत्य है। यदि कुछ रह जाता है तो आपके किए हुए शुभ कर्म और आपका सदाचरण। जिसका आचरण जितना अच्छा है, वह परमात्मा के उतना ही करीब है।

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