कल के अध्धाय से आगे बढ़ते हुए, आज हम धर्म के सिद्धान्तों के बारे में जानेगें ।
उत्तराध्ययन सूत्र में कह गया है –
एक शत्रु को जितने से पांच शत्रुओं पर विजय हो जाती है और पांच शत्रुओं को जितने से दस शत्रु जीते जा सकते है तथा दस को जितने वाला सभी को जीतता है । यह सिद्धान्त वाक्य भगवान महावीर के प्रधान शिष्य गणधर प्रभु श्री गौतम ने श्री केशी श्रमण दे प्रति फरमाया था । केशी श्रमण पाश्-र्व प्रभु के धार्मिक अपत्य होने से पाश्-र्वापत्य (पाश्-र्व प्रभु की संतान) कहलाते थे । उक्त गाथा को सुनते ही श्री केशी श्रमण चरम तीर्थंकर भगवान महावीर प्रभु के संघ में प्रविष्ट हो गए । इससे सिद्ध होता है कि अनादि काल से ही अनंत तिर्थंकरो का अनंत काल तक यही सिद्धान्त है ।
सर्व प्रथम मन को जीत लेने से पांच इन्द्रियां स्वत: ही वश हो जाती है । पांचो इन्द्रियों को जीत लेने से पांचों आस्त्रव-द्वार अपने आप रुक जाते हैं । उनमे पांच विषयों का प्रवेश नहीं हो सकता है । इस प्रकार जैसे किसी गढ़ की रक्षा के लिए उसके समस्त द्वारों को रोककर उसकी नाकाबंदी कर देने से वह सुरक्षित हो जाता है और उसमे शत्रु का प्रवेश नहीं हो पाता, उसी प्रकार सभी आस्त्र्वों को रोककर निष्कंटक आत्म-शासन संभव हो जाता है ।
अरिहंत प्रभु ने हम पर यह जो सत्यामृत की वर्षा की है उसका पूरा लाभ लेना चाहिए । इस सत्यवाणी को सुनने से मिथ्यात्व झड़ जाता है । अन्यथा स्थिति के बिगड़ते ही चले जाने की संभावना रहती है ।
सिद्ध प्रभु सर्वज्ञ हैं, त्रिकालदर्शी हैं । वे प्रतिक्षण हमें देख रहे हैं । इस सम्पूर्ण प्रतीति के साथ आचरण करना ही सिद्ध का साक्षात्कार है । यही सम्यक् दर्शन है । इस संसार के प्रति हमारा जो आकर्षण है, लोभ है, वह विनाशकारी है । इस लोभ का नाश आवश्यक है । सिद्ध के दर्शन हुए बिना यह लोभ मिट नहीं सकता है । अत: हमें अपने अंतरंग चक्षुओं से प्रतिक्षण उनका दर्शन करना चाहिए । सिद्ध अनन्त सुख में स्थित है । वह सुख ही शाश्वत है । यह अनुभूति हमें हो जाए तो फिर संसार दे विषय, जिन्हें हम आज बड़े प्रिय और मधुर समझ रहे हैं, विषवत लगने लगेंगे । हमें इसी द्रष्टि को अपनाकर चलना चाहिए, अन्यथा रसबंध होता ही रहेगा । इतनी बात हुई सिद्ध-दर्शन के विषय में ।
आचार्य के प्रति नम्र होने से मान-कषाय का नाश होगा । इस कषाय के नाश के बिना आत्मोन्नति संभव नहीं । आत्म-गुणों की पवित्र सुरभि का यदि विकास और विस्तार करना है तो आचार्यों के प्रति नम्रता भाव को ह्रदय में स्थान देना चाहिए अन्यथा प्रकृतिबंध होगा ।
उपाध्याय के प्रति विनम्र होकर, स्वाध्याय में रस लेकर, निष्ठा सहित आचरण करने से माया कषाय का नाश होता है । आत्मोत्थान हेतु इस कषाय का विनाश करना भी परम आवश्यक है । ऐसा न करने पर प्रदेश-बन्ध होगा ।
क्रोध तो महा भनायक कषाय है । सारी तपश्चर्या और साधना को यह नष्ट कर देता है । इसके विनाश के लिए सर्व साधुत्व की स्पर्शना करनी चाहिए । संसार के सर्व साधुओं के प्रति मन में पूज्य भाव होना चाहिए तथा उन्ही का संग भी करना चाहिए । यदि ऐसा नहीं किया जाएगा तो सभी प्रकार के बंधन प्रगाढ़ हो जायेंगे ।
जीवन में संतोष परमावश्यक तत्व है । असंतोष व्यक्ति को खूब भरमाता है, भटकाता है । संतोष धर्म को अंगीकार करने से कंचन का लोभ समाप्त हो जाता है और सुख नामक धर्म प्रकट होता है । कहा गया है –
वीतरागी मुनि ही वास्तविक अर्थों में सुखी होते है ।
सरलता से कंचन-कामिनीनिष्ठ की माया छूटती है । इसी का नाम आर्जव धर्म है । इस धर्म के प्रकट होने से आत्मा का वीर्य प्रकट होता है ।
मार्द्द्व धर्म से मान मिटता है और ज्ञान गुण प्रकट होता है । क्षमा धर्म से कुल-कुटुम्ब आदि के लिए आने वाले क्रोध का नाश होता है । तभी पुद्गल के सम्बन्धियों से अलग शुद्ध आत्म-साक्षात्कार होता है ।
अव्रत को रोकने के लिए संयम धर्म प्रत्याख्यान रूप संवर कहलाता है । निवृति और प्रवृति का एकांत दुराग्रह छोड़कर सम्यक मार्ग में वृति रखने से संयम धर्म की प्रतिष्ठा होती है ।
प्रमाद रूप आस्त्रव को रोकने के लिए राग-द्वेष का त्याग रूप धर्म की आवश्यकता है ।
अशुभ योग का आस्त्रव रोकने लिए संसार की सभी वस्तुओं के प्रति ममत्व के अभाव रूप अकिंचन धर्म के पालन की जरूरत है ।
इस प्रकार सब शत्रुओं को जीतकर ब्रह्म की ओर निरंतर प्रगति के लिए ब्रह्मचर्यं के आवश्यकता है ।
धर्म के मर्म को भगवान वर्धमान प्रभु के शासन के अनुसार गणधर प्रभु श्री गौतम स्वामी ने उपयुक्तानुसार संक्षेप में प्रकट किया । इन दस दर्मों के शासन के लिए जीवन में जो संकल्प उठते हैं, उन्हीं में सच्चे मन के दर्शन होते हैं ।
सिद्धान्त का निचोड़ अन्य कुछ न होकर यही है कि उक्त प्रकार के सच्चे मन के अनुसार साधना करते-करते अन्त में सिद्धि का वरण कर शाश्वत रूप से सिद्ध-स्थिति की प्राप्ति की जाए ।
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Sir hum hindi me blog likh sakte h or ise kuch problam to nhi hogi na
क्यों नहीं, आप चाहे तो किसी भी भाषा में लिख सकते है. ये सब आप पर निर्भर है.
धन्यावाद सर
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Bhut achee Mehta ji Dharm Hamesa hame shi raste me chalne gi prerda deta. Pahle ke samya me bade bade yodho ko Dharm ke bal par jit liya gaya hy.
What is your view about muslim in india sir jii??
As same i feel for other and myself. I feel no difference for any religion.
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Nice
to much mehta ji lage rahiye god bles s you
@mehta aap bahut hi ache words me religion ke bare me batla rhe hai,sach me bahut sari achi chij sikhne ko mil rhi hai hme
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