ज्ञानकर्मसंन्यासयोग
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( सगुण भगवान का प्रभाव और कर्मयोग का विषय )
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श्री भगवानुवाच
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।4.5।।
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श्रीभगवान् बोले हे परन्तप अर्जुन मेरे और तेरे बहुतसे जन्म हो चुके हैं। उन सबको मैं जानता हूँ पर तू नहीं जानता।
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व्याख्या तीसरे श्लोकमें भगवान्ने अर्जुनको अपना भक्त और प्रिय सखा कहा था इसलिये पीछेके श्लोकमें अर्जुन अपने हृदयकी बात निःसंकोच होकर पूछते हैं। अर्जुनमें भगवान्के जन्मरहस्यको जाननेकी प्रबल जिज्ञासा उत्पन्न हुई है इसलिये भगवान् उनके सामने मित्रताके नाते अपने जन्मका रहस्य प्रकट कर देते हैं। यह नियम है कि श्रोताकी प्रबल जिज्ञासा होनेपर वक्ता अपनेको छिपाकर नहीं रख सकता। इसलिये सन्तमहात्मा भी अपनेमें विशेष श्रद्धा रखनेवालोंके सामने अपनेआपको प्रकट कर सकते हैं
(टिप्पणी प 215) गूढ़उ तत्त्व न साधु दुरावहिं।
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आरत अधिकारी जहँ पावहिं।।(मानस 1। 110। 1) बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन समयसमयपर मेरे और तेरे बहुतसे जन्म हो चुके हैं। परन्तु मेरा जन्म और तरहका है (जिसका वर्णन आगे छठे श्लोकमें करेंगे) और तेरा (जीवका) जन्म और तरहका है (जिसका वर्णन आठवें अध्यायके उन्नीसवें और तेरहवें अध्यायके इक्कीसवें एवं छब्बीसवें श्लोकमें करेंगे)। तात्पर्य यह कि मेरे और तेरे बहुतसे जन्म होनेपर भी वे अलगअलग प्रकारके हैं।दूसरे अध्यायके बारहवें श्लोकमें भगवान्ने अर्जुनसे कहा था कि मैं (भगवान्) और तू तथा ये राजालोग (जीव) पहले नहीं थे और आगे नहीं रहेंगे ऐसा नहीं है। तात्पर्य यह है कि भगवान् और उनका अंश जीवात्मा दोनों ही अनादि और नित्य हैं।
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तान्यहं वेद सर्वाणि संसारमें ऐसे जातिस्मर जीव भी होते हैं जिनको अपने पूर्वजन्मोंका ज्ञान होता है। ऐसे महापुरुष युञ्जान योगी कहलाते हैं जो साधना करके सिद्ध होते हैं। साधनामें अभ्यास करतेकरते इनकी वृत्ति इतनी तेज हो जाती है कि ये जहाँ वृत्ति लगाते हैं वहींका ज्ञान इनको हो जाता है। ऐसे योगी कुछ सीमातक ही अपने पुराने जन्मोंको जान सकते हैं सम्पूर्ण जन्मोंको नहीं।.
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इसके विपरीत भगवान् युक्तयोगी कहलाते हैं जो साधना किये बिना स्वतःसिद्ध नित्य योगी हैं। जन्मोंको जाननेके लिये उन्हें वृत्ति नहीं लगानी पड़ती प्रत्युत उनमें अपने और जीवोंके भी सम्पूर्ण जन्मोंका स्वतःस्वाभाविक ज्ञान सदा बना रहता है। उनके ज्ञानमें भूत भविष्य और वर्तमानका भेद नहीं है प्रत्युत उनके अखण्ड ज्ञानमें सभी कुछ सदा वर्तमान ही रहता है (गीता 7। 26)। कारण कि भगवान् सम्पूर्ण देश काल वस्तु व्यक्ति परिस्थिति आदिमें पूर्णरूपसे विद्यमान रहते हुए भी इनसे सर्वथा अतीत रहते हैं।मैं उन सबको जानता हूँ भगवान्के इस वचनसे साधकोंको एक विशेष आनन्द आना चाहिये कि हम भगवान्की जानकारीमें हैं भगवान् हमें निरन्तर देख रहे हैं हम कैसे ही क्यों न हों पर हैं भगवान्के ज्ञानमें।
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न त्वं वेत्थ परंतप जन्मोंको न जाननेमें मूल हेतु है अन्तःकरणमें नाशवान् पदार्थोंका आकर्षण महत्त्व होना। इसीके कारण मनुष्यका ज्ञान विकसित नहीं होता। अर्जुनके अन्तःकरणमें नाशवान् पदार्थोंका व्यक्तियोंका महत्त्व था इसीलिये वे कुटुम्बियोंके मरनेके भयसे युद्ध नहीं करना चाहते थे। पहले अध्यायके तैंतीसवें श्लोकमें अर्जुनने कहा था कि जिनके लिये हमारी राज्य भोग और सुखकी इच्छा है वे ही ये कुटुम्बी प्राणोंकी और धनकी आशा छोड़कर युद्धमें खड़े हैं इससे सिद्ध होता है कि अर्जुन राज्य भोग और सुख चाहते थे। अतः नाशवान् पदार्थोंकी कामना होनेके कारण वे अपने पूर्वजन्मोंको नहीं जानते थे।ममताआसक्तिपूर्वक अपने सुखभोग और आरामके लिये धनादि पदार्थोंका संग्रह करना परिग्रह कहलाताहै। परिग्रहका सर्वथा त्याग करना अर्थात् अपना सुख आराम आदिके लिये किसी भी वस्तुका संग्रह न करना अपरिग्रह कहलाता है। अपरिग्रहकी दृढ़ता होनेपर पूर्वजन्मोंका ज्ञान हो जाता है /
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अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासंबोधः। (पातञ्जलयोगदर्शन 2। 39)संसार (क्रिया और पदार्थ) सदैव परिवर्तनशील और असत् है अतः उसमें अभाव (कमी) होना निश्चित है। अभावरूप संसारसे सम्बन्ध जोड़नेके कारण मनुष्यको अपनेमें भी अभाव दीखने लग जाता है। अभाव दीखनेके कारण उसमें यह कामना पैदा हो जाती है कि अभावकी तो पूर्ति हो जाय फिर नया और मिले। इस कामनाकी पूर्तिमें ही वह दिनरात लगा रहता है। परन्तु कामनाकी पूर्ति होनेवाली है नहीं। कामनाओँके कारण मनुष्य बेहोशसा हो जाता है। अतः ऐसे मनुष्यको अनेक जन्मोंका ज्ञान तो दूर रहा वर्तमान कर्तव्यका भी ज्ञान (क्या कर रहा हूँ और क्या करना चाहिये) नहीं होता।
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सम्बन्ध पूर्वश्लोकमें भगवान्ने बताया कि मेरे और तेरे बहुतसे जन्म हो चुके हैं। अब आगेके श्लोकमें भगवान् अपने जन्म(अवतार) की विलक्षणता बताते हैं।
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