अण्डे-मुर्गी की कहानी का रहस्य [खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती, भाग – 2, प्रविष्टि – 8]

in IndiaUnited Old4 years ago
“यदि अंडा और मुर्गी परस्पर एक दूसरे से पैदा होते हैं, तो इसमें कोई संदेह नहीं कि दोनों ही सजीव हैं।”

पहले अंडा पैदा हुआ था कि मुर्गी? यहाँ हम एक नहीं दोनों कैसे पैदा होते हैं, इसके रहस्य को उजागर करने जा रहे हैं। खरपत के जीवन-चित्र से आपको अंडा उत्पादन की प्रक्रिया काफी कुछ समझ में आ गई होगी।

खरपत जैसे नर-चूजों को बेरहमी से मारने के बाद बचे हुए मादा-चूजों को एक छोटे से पिंजड़े में ठूंस दिया जाता है या फिर एकदम सड़ांध भरे परिसर में दूसरे हज़ारों पक्षियों के साथ ‘रखा’ जाता है, ‘रखा’ नहीं बल्कि एक के ऊपर एक, आलू-प्याजों की तरह फेंका जाता है, जहाँ स्थानाभाव के कारण वे एक दूसरे के ऊपर गिरने के बाद अपने पैर टिकाने के लिए बमुश्किल ज़मीन ढूंढ़ पाते हैं।

इतने संकुचित स्थान में तनाव में आये इन पक्षियों के आपस में एक दूसरे को चोंच मारने से होने वाली व्यावसायिक हानि से बचने के लिए ज़ल्दी ही इनकी चोंचे काट दी जाती है। इतने सारे पक्षियों की चोंचे काटने के लिए स्वचालित मशीनों का उपयोग किया जाता है, जहाँ तीखी-पैनी ब्लेडों के बीच इनकी चोंच घुसेड़ी जाती है और फिर विद्युत से गरम हुई गर्मागर्म प्लेटों पर इनका मुंह रगड़ा जाता है। एक मिनट में 15 चूजों की चोंचें काटने वाली ये प्रक्रिया इतनी तीव्र गति से होती है कि मशीन-ऑपरेटर कई बार गलती से चूज़े की गर्दन तय सीमा से अधिक आगे खिसका देता है जिससे उसका पूरा चेहरा ही ब्लेडों के नीचे आ जाता है।

अण्डों के लिए बड़े किये जाने वाले चूजों को अलग-अलग पिंजड़ों में जीवन-भर के लिए कैद कर दिया जाता है, जहाँ उन्हें घूमना-फिरना तो दूर, पंख फड़-फ़ड़ाने तक के लिए भी जगह मुहैया नहीं होती। बस इस पुस्तक के आकार के बराबर स्थान में वे अपना पूरा जीवन बिताने को लाचार होते हैं। इस दम घुटाने वाले मात्र पैर-टिकाने लायक स्थान के एवज में मुर्गी से रोज़ अण्डे वसूले जाते हैं। एक जंगली मुर्गी प्राकृतिक रूप से साल-भर में 15-20 अंडे ही देती है। किन्तु कृत्रिम रूप से तैयार की गयी मुर्गी की नस्लों से पौल्ट्री-फार्मर्स प्रति-वर्ष 250 से 300 अंडे तक वसूलते हैं। दो से तीन वर्षों में एक मुर्गी से औसतन 550 अण्डे वसूलने के बाद जब लगातार अंडे पैदा करने के कारण उसका शरीर टूट चुका होता है और इतनी तीव्र दर पर अंडे पैदा करने में अक्षम हो जाता है, तब व्यापारियों को उसका अधिक जीना निरर्थक और हानिप्रद सौदा लगता है। अब ये तो आप भी सोच सकते हैं कि अब इस मुर्गी का क्या किया जायेगा?

अण्डों की “खेती” से हुई मुर्गी के सम्पूर्ण जीवन की वीभत्सतम दुर्दशा जैसी ही खौफनाक कहानी है उसके बच्चों के आपके भोजन की थालों तक के सफ़र की। माँस के लिए “पाले” जाने वाले चूजों (ब्रोइलरों) को पैदा होने के एक ही दिन बाद हैचरियों से मुर्गी-फार्मों तक ले जाने के लिए मालवाहक गाड़ियों में लाद दिया जाता है। केरटों में भरने के लिए इन्हें एक ट्रे से दूसरी ट्रे में आलू-प्याज की तरह उड़ेला जाता है। कइयों की टांगे और गर्दनें ट्रे और केरटों की दीवारों के मध्य बनी दरारों में फंस जाती हैं, जिससे या तो ये अपने जीवन से वहीं हाथ धो बैठते हैं या फिर जीवन-भर के लिए अपाहिज बन जाते हैं। जन्म होते ही कनवेयर-बेल्टों की सहायता से एक मशीन से दूसरी मशीन का सफ़र, चोंचें कटवाना, बंद मालवाहक ट्रकों में मुर्गी-फार्मों तक की लम्बी सड़क यात्राएं करना और फिर कोसों दूर एक नए शहर में मुर्गी-फार्म के नए पर्यावरण में फेंके जाने से सदमें में आये कई नवजात चूजें अपना दम तोड़ देते हैं।

बचे हुए बाशिंदों को फार्म-मालिक इनका ज़ल्दी से ज़ल्दी वज़न बढ़वाने का इंतजाम करते हैं। इन्हें रात-दिन लगातार दाना चुगने पर मजबूर किया जाता है। पिंजड़ों में रात को भी तेज़ कृत्रिम रोशनी की व्यवस्था की जाती है ताकि चूज़े रात को कहीं सो न जाए, बस दाना चुगते रहें। महिने-डेढ़ महिने में ही इनका वज़न ढ़ाई से तीन किलोग्राम तक कर दिया जाता है। अब इन्हें तुरंत कत्लखाने या मंडी में बेचने की व्यवस्था कर दी जाती है। जैसे ही इनकी वज़न-वृद्धि दर कम हो जाती है, वैसे ही ये फार्म-मालिकों के लिए नुकसान का सौदा बन जाते हैं। क्योंकि दाने की खपत के अनुपात में उनका वज़न नहीं बढ़ रहा या व्यवसाय की पेशेवर भाषा में यों कहें कि लागत अधिक हो गई और उत्पादन कम! सात वर्ष के औसत जीवन-काल वाले ये चूजें महिने-डेढ़ महिने में तो अपनी शैशव-अवस्था भी पूरी नहीं कर पाते और हमारे स्वादिष्ठ व्यंजनों की भेंट चढ़ जाते हैं!

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इसी श्रंखला में आगे पढ़ें:

प्रविष्टि – 9 अण्डे का झूठा प्रोपोगेंडा

धन्यवाद!

सस्नेह,
आशुतोष निरवद्याचारी