भाग – 2: मौत के सौदों में व्यापारिक-लाभ और सिद्धांतवाद का खेल [खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती]

प्रविष्टि - 6, खून के अश्रु पीते प्यासे मासूम!

“आँसू खून का ही दूसरा रूप हैं, जिनका कोई रंग नहीं होता।”

गणितीय आंकड़े पूर्ण सत्य उजागर करने में सक्षम नहीं होते। वे केवल एक ही पहलू पर प्रकाश डालते हैं कि मारे गए प्राणियों की संख्या कितनी है। बस। गणित यह नहीं कह पाता कि उन्हें कैसे-कैसे मौत के घाट उतारा गया था या फिर उनका जीवन किन-किन असहनीय यातनाओं से गुजारा गया था। उनके अस्तित्व में लाये जाने से लेकर उनके प्राण-पखेरू उड़ने तक की बेहद दर्दनाक व वीभत्सतम घटनाक्रमों पर गणित सर्वदा मूक-बधिर बना रहता है। यहाँ हम इसका कुछ खुलासा करने का प्रयत्न कर रहे हैं।

जानवरों को मारने के लिए तैयार करने के लिए उनका बड़े पैमाने पर औद्योगिक उत्पादन (कृत्रिम प्रजनन द्वारा) कर उनकी खेती (जैसे-तैसे बड़ा करना) की जाती है। कम से कम लागत में उत्पादन करने के लिए बहुत छोटे से क्षेत्र में हजारों-लाखों जानवरों की खेती की जाती है। इसके लिए व्यवसायी अपनी सुविधानुसार सभी जानवरों की शैशवावस्था में ही उनके अनेक अंग-उपांग काट देते हैं। जानवर स्थानाभाव के कारण एक दूसरे से लड़ कर चोटिल न हो जाएँ, इस हेतु मुर्गियों के अग्र-पंजे पहले ही काट दिए जाते हैं, सूअर और भेड़ों के दांत भी काट दिए जाते हैं, इनके सींग और चूजों की चोंचें भी काट दी जाती है, गाय के बछड़ों और बकरियों के सींग भी काट दिए जाते हैं, गाय का नर-बछड़ा गलती से भी अपनी माँ का दूध न पी लें, इस हेतु उसकी जीभ को पहले ही काट दिया जाता है, गायों को नामचीन करने के लिए गरम सलाखों से दाग लगाये जाते हैं, दूसरे सभी जानवरों के भी कान-छिद्र कर टैग लगाये जाते हैं, सभी पूँछ वाले जानवरों को बीमारियों और लड़ाइयों से बचाने के लिए उनकी पूँछे बचपन में ही काट दी जाती है, पक्षियों को उड़ने से रोकने के लिए उनके पर कुतर दिए जाते हैं, मवेशियों पर नियंत्रण करने के लिए उनकी नाक में छेद कर चूड़ी डाली जाती है, अवांच्छित प्रजनन-क्रिया से रोकने और कामोतेज्जित हो उग्र रूप धारण करने पर उभरने वाले खतरों से बचने के लिए उनको बधिया दिया जाता है, भेड़ों को रोग-संक्रमण से बचाने के लिए उनके पिछवाड़े की चमड़ी उतार (म्युलसिंग) दी जाती है। ऐसी ही अनेक दर्दनाक प्रक्रियाएँ पशु-फार्मों में एक सामान्य-सी बात है। इन पर विस्तार करने से पहले, इनके पक्ष में मानव द्वारा दिए जाने वाले कुछ तर्कों और कारणों को समझना जरूरी है।

कौन-सा माँस : हलाल, झटका या कोशर?

जानवरों के शोषण और क़त्ल की विभिन्न प्रक्रियाओं पर चर्चा कर तथाकथित बुद्धिजीवि वर्गों ने अपने अपने तर्क या कुतर्क पेश कर अपने आपको अन्य के मुकाबले निर्दोष साबित करने का अथक प्रयास किया है। अपने-अपने मत को दूसरों से उत्कृष्ट साबित कर उसके इर्द-गिर्द अनेक संप्रदाय गढ़ दिए हैं। माँस को प्राप्त करने के लिए की गई जानवर की हत्या के तरीके और अपनाई गई प्रक्रियाओं के आधार पर माँस को हलाल, झटका, कोशर आदि श्रेणियों में विभाजित किया गया। इनमें से क्या खाना जायज है एवं किससे परहेज करना धर्म-सम्मत है, लोगों को महज इसी में उलझाने के लिए लम्बे-लम्बे धर्म-सिद्धांत प्रतिपादित किये गए। इतना ही नहीं, बल्कि माँस किस प्राणी का है, उस आधार पर उसे लाल-माँस, सफ़ेद-माँस, गौ-माँस, शूकर-माँस इत्यादि में वर्गीकृत कर एक का भक्षण और दूसरे का निषेध करने वाले अनेक मत-मतान्तर स्थापित हुए। न सिर्फ माँस, अंडा भी शाकाहारी, माँसाहारी, जैविक, फ्री-रेंज इत्यादि श्रेणियों में विभाजित किया गया। इसी प्रकार दूध भी व्यावसायिक डेयरी का पाश्चर्यकृत दूध, मानवीय रीति से दुहा दूध, फ्री-रेंज गाय का दूध, अहिंसा-दूध, गौशाला का दूध आदि अनेक प्रकारों में बंट गया। ऐसे ही मधु भी वनों से एकत्रित प्राकृतिक शहद, मधुमक्खी पालन से उत्पादित शहद, कृत्रिम शहद आदि में वर्गीकृत कर दिया गया। धर्म या संप्रदाय के अलावा विज्ञान, न्यूट्रीशन और स्वास्थ्य को भी ऐसे वर्गीकरणों का आधार बनाया गया। जैसे गाय के दूध को ए-1 और ए-2 वेरायटी में बाँटा गया और एक को दूसरे से अधिक बेहतर साबित करने का प्रयत्न किया गया।

लगभग हर प्रकार के पशु-उत्पाद के उत्पादन से होने वाली पशु-क्रूरता को अनेक तर्कों का सहारा लेकर अलग-अलग तरीके से परिभाषित कर नैतिकता के नये-नये पैमाने बनाये गए। इनका सेवन करने वालों ने अपनी-अपनी पसंद की उत्पाद-श्रेणी के पक्ष में बड़े ही वैज्ञानिक तर्क देकर अपने आपको बेदाग व पाक-साफ़ घोषित करने का भरसक प्रयत्न किया है और खुद अपने ही फैसलों को सर्वश्रेष्ठ मान स्वयं को गौरवांवित महसूस करने लगे हैं! ये कुछ उसी तरह का बेहूदा मजाक है, जैसे जब एक शुतुरमुर्ग अपने सामने खतरा देख अपना सिर रेत में छुपा लेता है, या बिल्ली को देख कबूतर अपनी आँखे बंद कर, ये मान लेता है कि खतरा टल गया! पशुओं के उत्पादों के उपभोग से होने वाले उनके शोषण के अलग-अलग पैमाने बना लेने भर से या अलग-अलग सीमा-रेखाएं परिभाषित करने मात्र से उनका शोषण खत्म नहीं हो जाता।

क्रमश:

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खून के अश्रु पीते प्यासे मासूम!

धन्यवाद!

सस्नेह,
आशुतोष निरवद्याचारी