५०० साल पहले, हस्तिनापुर के जंगलों में एक राजकुमार रहता था | एकलव्य निषादा जनजाति का राजकुमार था और उसने सुना था की द्रोणाचार्य सबसे महान गुरु है जो तीरदांजी और युद्ध का विज्ञान पढ़ते है |एकलव्य जनता था की वह एक शूद्र है और द्रोणाचार्य एक ब्राह्मण गुरु है जो सिर्फ क्षैत्रियों को पढ़ते है मगर यह जान क्र भी उसको पूरी कोशिश करनी थी की वह उनका शिष्य बन सके | एकलव्य निकल गया द्रोणाचार्य के गुरुकुल के लिए और वहां उसने देखा की अराजकुमार अर्जुन अभ्यास कर रहा था द्रोणाचार्य के साथ | एकलव्य द्रोणाचार्य के पैर पढ़ गया और कहा की "हे गुरु , मेरा नाम एकलव्य है और मैं निषादा जनजाति का राजकुमार हु और मैं चाहता हु की आप मुझे अपना शिष्य बना ले |
द्रोणाचार्य कुछ देर के लिए चुप रहे और फिर बोलै की, "मैं एक ब्राह्मण गुरु हु और मेरे सारे छात्र क्षेत्रया है | मैं एक शूद्र बालक को नहीं पढ़ा सकता | पांडव राजकुमार अर्जुन ने कहा की "तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई, हम सब यहाँ पांडव राजकुमार है और तुम एक शूद्र हो "| एकलव्य को सुनके बुरा लगा और वहां से चला गया बिना कुछ कहे |
लेकिन एकलव्य ने हर नहीं मणि | वह जंगलों में अभ्यास करने लगा और तीरदांजी सिखने लगा | उसने मिटटी से गुरु द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाई और हर दिन उस के सामने अभ्यास करना शुरू क्र दिया | साल बीत गए और वह एक बहुत अच्छा धनुषराशि बन गया | वह अर्जुन से भी बेहतर बन चूका था |
एक दिन जब एकलव्य अभ्यास कर रहा था | एक कुत्ता भौकने लगा और एकलव्य का ध्यान टूट गया और उसने ७ तीर छोड़े जो सीधे कुत्ते के मुँह में लगे बिना उससे चोट लगाए | वह कुत्ता घुमते घुमते द्रोणाचार्य के गुरुकुल पहुँच गया और द्रोणाचार्य देख के हैरान हो गए क्योंकि ऐसा करतब एक महान धनुषराशि ही कर सकता है | वह जंगक में ढूंढ़ने गए की यह किसने किया है और उन्हें एकलव्य दिखा और पूछा की |
"बालक, तुम्हारा गुरु कोण है ?"
एकलव्य ने कहा, "आप हो गुरु जी | मैंने हर दिन आपके मिटटी की मूर्ति के सामने अभ्यास किया है और अभ में आपके आश्रीवाद से एक कुशल धनुषराशि बन्न चूका हो |
अर्जुन को यह देख के गुस्सा आ गया क्योंकि वह सोचता था की वही सबसे कुशल धनुषराशि था पूरी दुनिया में | द्रोणाचार्य जो भी यह समझ आ गया और वह चिंतित हो गए की एक शूद्र बालक ने पांडव राजकुमार से भी अच्छा धनुषराशि बन गया | गुरु द्रोणचार्य ने एक उपाय सोच लिया और एकलव्य से गुरु दक्षिणा मांगी क्योंकि एकलव्य द्रोणाचार्य को अपना गुरु मंटा था | एकलव्य ख़ुशी से उठवला हो गया और कहा की वह कुछ भी दे देगा | द्रोणाचार्य ने कहा की मुझे तुम्हारा दायां अंगूठा चाहिए | सब चौक गए, अर्जुन भी, क्योंकि वह जानता थे की धानुष चलने नामुनकिन होगा बिना दायां अंगूठा के | एकलव्य ने कहा की "मैं आपकी इच्छा कभी इंकार नहीं कर सकता "| और यह कह कर एकलव्य ने अपना दायां अंगूठा काट दिया और अपनी दक्षिण देदी | एकलव्य ने बिना दायां अंगूठा के धानुष चलना सीख लिया और वह आज तक आदर्श छात्र मन जाता है |